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अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के मुकाबले भारतीय सुप्रीम कोर्ट का अध्ययन

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भारतीय सुप्रीम कोर्ट, इंग्लैण्ड या अमेरिका की तुलना में दुनिया के सर्वाधिक एक्टीविस्ट सुप्रीम कोर्टस में है – जिनका सुनवाई और निर्णय का क्षेत्र विस्तार से फैला हुआ हैं। अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट का क्षेत्र कड़ी संविधान की परिभाषा के विस्तार की मर्यादाओं में सीमित है। उनके लिये संविधान की परिभाषा करने हेतु ’’फिल इन ब्लेंक’ का कार्य परम कर्तव्य है। 2009 के पूरे वर्ष में अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने मात्र सतत्तर केस निर्णित किये। ग्लोबल जिन्दल लॉ कालेज के रोबिनसन के 2007 के एक अध्ययन के अनुसार भारत में सुप्रीम कोर्ट के पास 57,000 अपील के प्रार्थना-पत्र आये जिनमे से 6900 की अपील की प्रार्थना स्वीकार कर ली गई। इन प्रार्थना-पत्रों का अध्ययन मात्र औसतन सप्ताह के दो दिन खा गया, बाकी तीन दिन का समय प्रार्थनाओं की सुनवाई में लगा। इस तरह नये केसो का अम्बार जजों के आगे बढ़ता ही रहेगा।

सर्वप्रथम तो जज के सामने यह मर्यादा हो कि कोर्ट के सामने का विषय केवल संवैधानिक कानून की परिधि की सीमा में तर्क-रीजन-लौजिक के आधार पर आये। अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट जन भावना और भय से ज्यादा कानून के तर्क में अपने आपको बांधे रखता है। इसीलिये कठिन विषयों पर जेसे कि जलवायु- क्लाईमेट चेंज जैसे उलझे और कई पक्षों के उलझे मामलों पर अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट सुनवाई ही नहींे करता। कोर्ट के अनुसार जहां जिस विषय पर संविधान की व्याख्या का प्रश्न नहीं आता वह विषय राज नेताओं पर छोड़ना ज्यादा उचित समझते है। अगर इससे एक्जेक्यूटीव लेजिसलेचर और ज्यूडीसीयरी में बेलैंस-समन्वय बराबर रहता है। सबसे बड़ी बात है कि मुकदमों का अम्बार सीमा में रखा जाता है। यदि मुकदमें कम होंगे तेा विवेचन बेहतर होगा। उनके विवेचन की व्याख्या और अध्ययन के लिये कानून के विद्वानों को बेहतर अवसर मिलेगा। आम आदमी के लिये सुप्रीम कोर्ट में कम मुकदमें जाने का लाभ यह होगा कि उसको वर्षों तक न्याय की प्रतिक्षा करनी पड़े, उसके स्थान पर तुरन्त मालूम हो जायेगा कि उसकी प्रार्थना ही एड्मिट होने के योग्य नहीं है।

भारतीय संविधान में आर्टिकल 136 के अनुसार सुप्रीम कोर्ट को नीचे के कोर्ट की अपील सुनने का अधिकार है। इस कानून के अन्तर्गत केस को स्वीकार करने का या नहीं करने में सुप्रीम कोर्ट के पांच में से दो दिन निकल जाते है, यह जिन्दल ला कालेज के अध्ययन का आधार था। कोर्ट के पास नये मुकदमों का अम्बार और उसके उपर समय की सीमा की मार से कोर्ट कैसे उभर सकेगा।

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Pardarshee
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Dr. Bhupendra Bhandari Editorial Director

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